समय का कारवाँ

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सहर संग आफ़ताब चला आता है
उसकी पुरानी आदत है
शब ढले, चाँद खिल जाता है
जैसे कोई रिवायत है

ख़ामोश लबों पर अब हँसी नहीं आती
भीगी पलकों पीछे छिपी रहती है उदासी
रुके हुए पलों में
सिसकते एहसास हैं

समय का कारवाँ
ठहर कर भी, हो रहा गुज़र है
ज़िन्दगी रुक सी गयी है
और हम, अब भी जिए जा रहे हैं....

शैल
July 17, 2017

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