रफ़्तार
लकड़ी के पाटों से जकड़ी
फिर भी दबा-दब भाग रही
लोहे की पटरी पर
रफ़्तार पकड़े है ज़िंदगी
'चाय गर्म चाय', की आवाज़ सुन
साल के पत्तल में लिपटी
पूरी-आलू याँ भजिया संग
जो कभी लेती थी कुल्हड़ से चुस्कियाँ
थर्माकोल की बेस्वाद चाय में
अब ढूँढती है गुदगुदा एहसास
गुज़रे वक़्त के उन नरम परांठों का
जिनमें माँ अपना प्यार बाँध कर देती थी
खिड़की के बाहर चलते चलचित्र पर
अब लहलहाते खेत याँ झूमते दरख्त नहीं उभरते
न ही गाँव के बच्चे दूर तलक
ट्रैन के पीछे हाथ हिलाते भागते दिखते
अब तो ढूँढती हैं निगाहें
इंटरनेट के टावर
और भागती हैं उंगलियाँ
टच स्क्रीन पर
भागती पटरियों से भी तेज़
भाग-रही-ज़िन्दगी की रफ़्तार से
आगे निकलने की होड़ में
हम जीना ही भूल गए...
शैल
November 2, 2017