“ख़ुशी”
कल शाम
गरम चाय की चुस्की संग
थोड़ी ख़ुशी की तलब हुई
डब्बा जो खोला मैंने
नज़रें
ख़ाली तले से टकरा गयीं
तलब ज़ोरों की थी
पड़ोस का किवाड़ खटखटाने से
ख़ुद को रोक ना पाई
भीतर से आवाज़ आयी,
"कौन है? क्या चाहिए?"
दबी आवाज़ में
मैं बुदबुदाई,
"भाभी, थोड़ी ख़ुशी"
"अभी कल ही ख़त्म हुई"
कहते हुए सविता भाभी
किचन मेँ चली गयीं
अब तो बस ठान ली थी
ख़ुशी पाकर ही दम लूँगी
एक फलांग में
दो सीढ़ियाँ नापते हुए
साथ वाली
बनिए की दुकान पर पहुँच गयी
हाँफते हुए बोली,
"एक पाव ख़ुशी देना"
शायद बीवी से झगड़ कर आया था
झल्ला कर बोला,
"ख़ुशी की उधारी बंद कर दी है।"
नीचे तक आ ही गयी थी
तो सोचा
चंदू हलवाई से भी पूछ लूँ
हर शाम दुकान बढ़ाने बाद
यहीं तो दिखते हैं, सेठ कृपालु
डोना भर भर ख़ुशी
डकार जाते हैं
बड़े इत्मीनान से फिर
अपनी गोल तौंद पर हाथ फिराते हैं
बस आनन-फ़ानन में
पहुँच गयी मिठाई की दुकान पे
पर ये क्या
मेरे देखते ही देखते
चंदू ने आख़िरी ढेली भी
लाला को बेच दी
ख़ाली हाथ
बेहिस पाँव
भारी मन लिए
किया घर की ओर रूख
उदासी में अपनी
बरसाती नाली भी
दिखाई ना पड़ी
और ओंधे मुँह मैं
सीधा बालू के टीले पर
जा गिरी
इससे पहले कि
कोसती अपनी क़िस्मत को
हँसी के ठहाके
मेरे कानो में पड़े
ताली पीट पीट कर
कुछ बच्चे
मुझ पर थे हंस रहे
तन मैले, कपड़े फटेहाल
पर फिर भी लग रहे थे
बहुतेरे मालामाल
उनके कहकहे सुन
मेरे ग़ुस्से का बादल
जैसे धुआँ सा हो गया
नरम रेत की मीठी चुभन ने
मेरा सोया बचपन जगा दिया
ढूँढ रही थी जिसे मैं
दुकानों, मकानों में
वो तो फैली पड़ी थी यहाँ
बाग़ानों, खुले मैदानों में
हाय री, नज़र बावरी
देख ना पायी
देख ही ना पायी...
शैल
July 14, 2017