कौन है अपना, कौन बेगाना…

वक़्त है बंजारा, हर लम्हा बेगाना
बीच इस हजूम के, कौन है अपना, कौन बेगाना

चेहरे पर चेहरा, असली चेहरा कहाँ दिखता है
रोज़ पोंछता हूँ आइना, अक़्स फ़िर भी धुंदला ही लगता है

ज़माने का दस्तूर है शायद, लोग जुबां पर मिठास, दिलों में मलाल रखते हैं
ख़त के आख़िर में रस्मन सभी "तुम्हारा अपना" रक़म करते हैं

खुद से मिलने से क्यों कतराता है इंसां
रौंद दे जो खुदी को, खुदा के दर वही राहगुज़र होता है...

रक़म: लिखना
रस्मन: रीति/ परंपरा के अनुसार

शैल
September 8, 2017

Previous
Previous

रिश्ते

Next
Next

मनमर्ज़ी