उधड़ते-बुनते रिश्ते
कल हम भी पहुँच गए
ज़िन्दगी के बाज़ार में
सोचा, थोड़ी ख़रीद-बेक सीख लें
रिश्तों के व्यापार में
अजब ही नज़ारा था
मोल-भाव का कोई तोल न था
कौन था अपना, कौन पराया
इसमें भी बहुत झोल था
उम्मीदें यहाँ झूटी थीं
यादें भी तो रूठी थीं
ये कैसी उधेड़-बुन थी
दिलों से रिस रही सिलन थी
और दिमाग़ की सिलाइयाँ
रिश्ते बुन रही थीं...
शैल
July 20, 2017